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हैलो सुजित..

तेजिन्दर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :99
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 755
आईएसबीएन :81-263-0906-7

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प्रस्तुत है दलित विमर्श को नये और रोचक ढंग से प्रस्तुति...

Hello Sujit

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

तेजिन्दर की चर्चा आज के दौर के उन महत्त्वपूर्ण उपन्यासकारों में होती है जो सामाजिक विसंगतियों की चुनौती को स्वीकार कर, उन पर लिखना पसन्द करते हैं। उपन्यास की विशेषता है उसका सधा हुआ शिल्प तथा दारूण स्थितियों के बीच की चुप्पी को तोड़कर चीखता हुआ एक सवाल-‘यह रूल कौन बनाता है ?’’ तेजिन्दर ने मिसेज खोब्रागड़े के माध्यम से इस सवाल का जवाब तलाशने की एक गम्भीर और सार्थक कोशिश की है जो पाठकों की संवेदना को भीतर तक झकझोर कर रख देती है। तेजिन्दर अपने समय के बेहद जरूरी सवालों से पलायन नहीं करते बल्कि अपने पात्रों के साथ चलते हुए उनकी तह तक जाते हैं। यही कारण है कि उनके उपन्यास में एक तरह की ‘बोल्डनेस’ अन्तर्निहित है। पाठकों को समर्पित है आज के दलित विमर्श को नये और रोचक ढंग से सफलतापूर्वक प्रस्तुत करनेवाला यह लघु उपन्यास ‘हैलो सुजित....’।


‘‘मैं हमेशा छोड़ता जाता हूँ
वे शहर और स्त्रियां
जिन्हें मैंने प्यार किया
और ढोता जाता हूँ अपने बिछोह
घावों की तरह
जो मेरे भीतर घुलते हैं
मैं पहुँच रहा हूँ-नज़दीक नज़दीक
किसी जगह के।’’

नाजिम हिकमत

(कविता-मेरी स्त्री की अंतिम पंक्तियाँ)

हैलो सुजित

श्रीमती कुमुद महेश खोब्रागड़े।
वे महाराष्ट्र के सूचना विभाग में संयुक्त निदेशक थीं। उनके जिम्मे इलेकॉट्राँनिक मीडिया का काम था। वे अपने काम को बहुत शौक और लगन के साथ अंजाम देती थीं। नागपुर में इंदौर बस्ती के पास जो झोपड़पट्टियाँ हैं, वहीं उनका बचपन गुजरा था। उनके पिता औद्यौगिक विकास निगम में चौकीदार थे। पचास साल की उम्र के आसपास वे मर गये थे। मिसेज़ खोब्राहड़े की तीन बहनें और थीं, एक भाई था, पर अब दो बहने ही बची थीं। भाई बचपन में ही नहीं रहा था। एक बहन की मृत्यु सिकेल सैल की बीमारी से हो गयी थी। उनकी एक बहन की शादी हो चुकी थी। वह अपने घर-संसार के कुएँ में डूब गयी थी। मिसेज खोब्रागड़े की उनके साथ बातचीत नहीं थी। उनका कहना था- ‘मुझे अपने पति के जबड़ों में सुरक्षित रहने वाली स्त्रियाँ पसन्द नहीं हैं।’

उनकी छोटी बहन उनके साथ रहती थी। मां भी। वैसे उन्होंने छोटी बहन की शादी कर दी थी पर कुछ ही हफ्तों में उसके पति के जबड़े इतने तीखे हो गये कि किसी तरह बचकर वे बाहर निकल सकीं। फिर मिसेज़ खोब्रागड़े उसे  अपने घर ले आयीं। आई और छोटी बहन उन्हीं के साथ पिछवाड़े बने एक कमरे में रहती थीं। आई को पिता की मृत्यु के बाद निगम में ही नौकरी मिल गई थी। अब उन्हें पेंशन मिलती थी और बाबा का कुछ पैसा बैंक में जमा था, जिसका ब्याज हर महीने बैंक में जमा होता जाता था,
मिसेज़ खोब्रागड़े के पति महेश खोब्रागड़े महाराष्ट्र राज्य सरकार में नौकरी करते थे। वे सिचाईं विभाग में बाबू थे। उनके दो बेटे थे।
एक बेटा करीब बीस साल का और दूसरा अभी पढ़ रहा था। उसका नाम अतुल था। दूसरा बेटा चौदह साल का था। उसका नाम सुजित था। उसे ‘स्पाँस्टिक’ था। उसकी सिर्फ उम्र बढ़ रही थी। उसकी देह भी उम्र के साथ ही अपना आकार ले रही थी, पर वह एक जगह आकर ठहर गया था। वह सिर्फ कें-कें या कू-कूँ ऐसा ही कुछ कहता रहता था।

वह कहता तो कुछ था पर जो शब्द हमें सुनाई पड़ते थे, वे होते थे-कें-कें, कू-कूँ।
मिसेज खोब्रागड़े कभी-कभी इन शब्दों की प्रतिध्वनि में गुम हो जाती थीं। अकसर ही वे इन आवाज़ों के बीच कहीं खो जातीं। सिर्फ वे कूँ-कूँ, कें-कें-इन शब्दों के अर्थ समझती थीं। और कोई नहीं। कुछ हद तक आई और शायद कुछ हद तक उनके पति महेश खोब्रागड़े भी सुचित की भाषा को समझ सकते हों पर मिसे़ज़ खोब्रागड़े से ज्यादा, सुजित के शब्दों का अर्थ कोई नहीं समझता था।

उनके घर के हर कमरे में यह आवाज बाकायदा गूँजती  रहती -कूँ-कूँ ,कें-कें, कूँ-कूँ,कें-कें।
मिसेज खोब्रागड़े अकसर ही इस आवाज को अपने साथ दफ्तर में ले आतीं। कई बार तो वे इतनी सतर्क रहतीं कि अपने आसपास की चीजों को छू-छूकर देखने लगती थीं, मेज़ के नीचे दरवाजे के पीछे, कमरे में खाली पड़ी कुर्सियों के बीच कि कहीं उनके साथ सुजित तो नहीं चला आया ! फिर वे घर पर टेलीफोन करतीं। उधर से आवाज आती- कूँ-कूँ, के-कें, कूँ-कूँ, कें-कें।

वे सन्तुष्ट हो जातीं और उदास भी। सुजित घर पर है और अकेला। वे सोचतीं कि बीच-बीच में आई आकर उसे देख लेती होगी।
यों तो सुचित स्कूल भी जाता था। उस तरह के बच्चे जो कूँ-कूँ और कें-कें करते हैं, उनके लिए अलग से स्कूल भी होता है। स्कूल का समय सुबह का था। सुबह आठ बजे से लेकर दोपहर एक बजे तक। उसके बाद सुजित घर पर आ जाता। आई दरवाजा खोलतीं और उसे सीधे अपने कमरे में ले जातीं। फिर उसे खाना खिलाकर टेलीविजन वाले कमरे में छोड़ देतीं। उसके बाद शाम तक कमरे में टेलीविजन होता और सुजित होता और शोर होता। इसी बीच दोपहर बाद दो-तीन बार मिसेज़ खोब्रागड़े घर पर टेलीफोन कर लेतीं और और सुचित की आवाज़ सुन लेती कूँ-कूँ के-कें कूँ-कूँ कें-कें।
शाम को लगभग पाँच बजे महेश खोब्रागड़े आते और वे भी टेलीविजन के सामने बैठ जाते। आई उन्हें चाय का कप और साथ में कभी पोहा तो कभी पकौड़े वगैरह दे जातीं। महेश खोब्रागड़े को बवासीर की शिकायत रहती थी पर मिर्च खाने की उनकी आदत छूटती नहीं थी।

दफ्तर से आने के बाद मिसेज़ खोब्रागड़े रसोई का काम करतीं-रात के खाने के लिए भी और अगले दिन की सुबह के लिए भी। रात को वे खाना खाते और सो जाते। मिसेज खोब्रागड़े अन्दरवाले कमरे में सोती जहां डबल बेड बिछा था। सुजित भी उनके साथ सोता था। अतुल ऊपर वाले कमरे में सोता था। अकेला।

महेश खोब्रागड़े टेलीविजन वाले कमरे में सोते। आधी रात तक वे ‘वी’ या ‘एम’ टेलीविजन चैनल देखते रहते। फिर वे बीचवाले कमरे में जाते जहाँ मिसेज खोब्राबड़े सो रही होतीं, सुजित के साथ। वे अपने हाथों से सुजित को कुछ दूर सरकाते और मिसेज खोब्राग़ड़े को अपनी बाँहों में भर लेते। थोडी ही देर में वे बदहवास हो जाते और फिर किसी तरह   अपने पाजामे का नाड़ा कसते हुए वापस टेलीविजन वाले कमरे में आ जाते। एकाएक उन्हें ‘एम’ या ‘वी’ चैनल अश्लील लगने लगते। वे रिमोट उठाते और टेलीविजन बन्द कर देते। फिर सारी बत्तियाँ बुझाकर अँधेरे में औंधे मुँह लकड़ी के दीवान पर पसर जाते।

मिसेज़ खोब्रागड़े अपनी जगह पर वैसे ही पड़ी रहतीं-निस्तेज। उनके भीतर कहीं कुछ भींगता नहीं था।
यह क्रम पता नहीं कब से जारी था। मिसेज़ खोब्रागड़े को लगता कि अब इससे निजात नहीं है। वे लगातार महसूस करतीं कि उनके भीतर कोई कुदाल चला रहा है और उनके लिए एक कुआँ खोदा जा रहा है। वे यह सोचकर भयभीत हो जाती कि कहीं न कहीं वे भी पति के जबड़ो में फँसती जा रही हैं। महेश खोब्रागड़े का चेहरा उन्हें डराने लगता। क्या ऐसा सचमुच हो सकता है, वे सोचती और डर जातीं। वे अपने आपको समझाती कि नहीं ऐसा नहीं हो सकता।

कई बार आधी-आधी रात तक उन्हें नींद नहीं आती। वे अपने जीवन के पिछवाड़े की सीढ़ियाँ उतरतीं और फिर वहीं ठहर जातीं। उन्हें याद आता कि उनके झोपड़े के अन्दर एक झोपड़ा और हुआ करता था यानी कि झोपड़े के अन्दर एक छत थी। बाँस की-बाँस को रस्सी से बीना गया था। रस्सी के साथ ही बाँस की एक सीढ़ी थी। जब मन करे, बाँस की सीढ़ी के सहारे ऊपर के कमरे में चढ़ा जा सकता था। फिर सीढ़ी को भी ऊपर खींच लेने से अपनी अलग दुनियाँ बन जाती थी। जब चाहे बाँस की इस सीढ़ी को वापस नाचे लटका दो और उसके सहारे फर्श पर उतर आओ। ऊपर के कमरे में जिसमें ठीक तरह से खड़ा भी नहीं हुआ जा सकता था, एक खिड़की भी थी।

आधी रात को कभी-कभी मिसेज़ खोब्रागड़े एक छोटी लड़की में तब्दील हो जातीं और उस खिड़की के पास जा बैठती। जब वे छोटी थीं, उस खिड़की के पास घण्टों बैठी रहा करती थीं। तब वे मिसेज़ खोब्रागड़े नहीं थी। सिर्फ कुसुद थीं। कभी-कभी वे अपने आपको कुमुद गजभिये कहा करती थीं, गजभिये उनके बाबा की उपजाति थी। इस कमरे में यह खिड़की उनके बाबा ने लगवाई थी।
‘यहाँ खिड़की खुल जाने से यह कमरा हो गया नहीं तो गोदाम था।’ उन्होंने कहा था। उनके मुँह से शराब की गन्ध आती रहती थी।

उस खिड़की के पास बैठना बाबा के पास बैठने की तरह लगता था। वहाँ बैठना कुमुद को बहुत सुरक्षित लगता था। खिड़की के बाहर एक ऊँचा पेड़ था जिस पर पतझड़ कभी पूरी तरह नहीं आता था। ओ’ हेनरी की कहानी ‘द लास्ट  लीफ’ का एक पत्ता हमेशा उनके लिए उस पेड़ पर बचा रहता था। स्कूल में पढ़ी यह कहानी अकसर उन्हें याद आती थी।
शायद इसलिए अभी तक उन्हें लगता था कि उदासी की लम्बी रात में भी कहीं एक हरा पत्ता है जो उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। उस समय सुजित की कूँ-कूँ, कें-कें की आवाज से भी वे पूरी तरह पस्त नही होती थीं और कई बार झोपड़े  के अन्दर, छतवाले कमरे में लौट आती थीं।

कहीं उस पेड़ का यह हरा पत्ता सत्यम तो नहीं था ?
सत्यम का तबादला इन्दौर से नागपुर हुआ था। वह उस दफ्तर का निदेशक बनकर आया था जिसमें मिसेज़ खोब्रागड़े संयुक्त निदेशक थीं। इस मायने में वह मिसेज़ खोब्रागड़े का बॉस था। दफ्तर में दो संयुक्त निदेशक और भी थे।
तीन सहायक निदेशक थे। एक तकनीकी निदेशक थे जनार्दन रेड्डी। रेड्डी साहब बरसों से नागपुर में ही पाँव पसारे थे। मिसेज़ खोब्रागड़े कभी उनके मातहत काम कर चुकी थीं वे भी पहले सहायक निदेशक थीं और सरकारी वरीयता सूची में उनका नाम अपने सहयोगियों से काफी नीचे था।
लेकिन हुआ यह था कि इस दौरान विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमन्त्री बन गये थे, और एकाएक मिसेज़ खोब्रागड़े का नाम उस सूची में ऊपर तक आ गया था। 


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